हल्दी की खेती :हल्दी (कुरकुमा लांग कुल-जिंजीवरेसी) एक उष्णकटिबंधीय मसाला है जिसकी खेती इसके कंद हेतु की जाती है। इसका उपयोग मसाला, रंग-रोगन, दवा व सौन्दर्य प्रसाधन के क्षेत्र में होता है। इसके कंद से पीला रंग का पदार्थ- कुर्कुमीन व एक उच्च उड़नशील तैलीय पदार्थ-टर्मेरॉल का उत्पादन होता है। इसके कंद में उच्च मात्रा में उर्जा (कार्बोहाइड्रेट के रूप में ) व खनिज होते हैं। इसके बिना पाक विद्या अधुरा होता है। इसके उपज पर भारत का एकाधिकार है। हमारे देश का मध्य व दक्षिण का क्षेत्र एवं असम इसके उत्पादन का मुख्य भाग है।
हल्दी की खेती के लिए जलवायु
अच्छी बारिश वाले गर्म व आर्द्र क्षेत्र इसके उत्पादन हेतु योग्य होते हैं। इसकी खेती 1200 मीटर उंचाई तक वाले क्षेत्र में सुगमता पूर्वक अच्छी सिंचाई व्यवस्था के साथ की की जा सकती है।
हल्दी की खेती के लिए मिट्टी
इसकी अच्छी उपज हेतु दोमट केवाल अथवा काली मिट्टी अच्छी होती है। तथापि कम्पोस्ट देकर कम उपजाऊ बलुई दोमट मिट्टी में भी इसकी अच्छी उपज ली जा सकती है। इसके खेत में जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। मिट्टी क्षारीय नहीं होनी चाहिए। कंद का सड़न इसकी मुख्य समस्या है। ऐसे क्षेत्र में कम-कम-से दो वर्ष तक फसल विन्यास पद्धति अपनाना चाहिए।
हल्दी की उन्नत किसमें
फसल तैयार होने में लगे समय के आधार पर इसकी किस्मों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया यगा है।
1. कम समय में तैयार होने वाली ‘कस्तुरी’ वर्ग की किस्में – रसोई में उपयोगी, 7 महीने में फसल तैयार, उपज कम। जैसे-कस्तुरी पसुंतु।
2. मध्यम समय में तैयार होने वाली केसरी वर्ग की किस्में – 8 महीने में तैयार, अच्छी उपज, अच्छे गुणों वाले कंद। जैसे-केसरी, अम्रुथापानी, कोठापेटा।
3. लंबी अवधि वाली किस्में – 9 महीने में तैयार, सबसे अधिक उपज, गुणों में सर्वेश्रेष्ठ। जैसे दुग्गीराला, तेकुरपेट, मिदकुर, अरमुर।
व्यवसायिक स्तर पर दुग्गीराला व तेकुपेट की खेती इनकी उच्च गुणवत्ता के कारण की जाती है।
अन्य किस्में
मीठापुर, राजेन्द्र सोनिया, सुगंधम, सुदर्शना, रशिम व मेघा हल्दी-1।
हल्दी की रोपाई
भारी मिट्टी वाले क्षेत्र में खेत की अच्छी तरह जुताई कर नाली-मेढ़ पद्धति में खेत तैयार कर लेते हैं। हल्की मिट्टी वाले क्षेत्र में समतल जमीन में ही इसके कंदों अथवा उत्तक संवर्धित पौधों की रोपाई की जा सकती है। इसके लिए क्यारियों का आकार अपने सुविधानुसार रखा जा सकता है। इसकी रोपाई हेतु मातृ कंद अथवा नये कंद-दोनों का प्रयोग किया जा सकता है। मातृ कंद 10 क्विंटल व नये कंद 8 किवंटल अथवा 90 हजार उत्तक संवर्धित पौधे प्रति एकड़ की दर से रोपाई की जाती है। इसकी रोपाई लाल मिट्टी वाले क्षेत्र में 6”x12” की दूरी पर तथा काली मिट्टी वलाए 6”x16” की दूरी पर करते हैं। 18” की दूरी पर बने मेढों पर 8” की दुरी पर भी रोपाई की जा सकती है।
हल्दी की खेती का रोपण का समय
कम समय में तैयार होने वाली किस्मों हेतु- मई ।
मध्यम समय में तैयार होने वाली किस्मों हेतु- जून के पहले भाग में।
लंबी अवधि वाले किस्मों हेतु-जून-जुलाई
रोपाई में देरी पौधों के विकास व उपज दोनों में कमी लाता है। रोपने के पूर्व डाईथेन एम-45 के 0.3% घोल से इसके कंदों को उपचारित कर लेने से कंद सड़न बीमारी नहीं लगती।
हल्दी की खेती में खाद की मात्रा
हल्दी की खेती कार्बिनक व रसायनिक खाद (प्रति एकड़) निम्न तालिकानुसार प्रयोग करते हैं।
किस्म | खाद | मात्रा |
कार्बनिक | कम्पोस्ट | 120-160 क्विंटल |
खल्ली | 60 किवंटल | |
रसायनिक(हल्की मिट्टी हेतु) | यूरिया | 270 किलो |
फास्फेट | 330 किलो | |
पोटाश | 120 किलो |
हल्दी की खेती में खाद प्रयोग की विधि
कार्बनिक
पूरे कम्पोस्ट का प्रयोग करते वक्त व खल्ली को काई बार में प्रयोग करना उचित होता है।
रासायनिक
फास्फेट की पूरी, पोटाश की आधी या यूरिया की एक तिहाई मात्रा रोपाई के वक्त, एक तिहाई यूरिया के दो माह बाद तथा पोटाश की शेष आधा व यूरिया की एक तिहाई मात्रा रोपाई के चार महीने बाद प्रयोग करते हैं।
पलवार
सूखे पत्तों द्वारा हल्दी के खेत में पलवार डालने से मिट्टी की नमी ज्यादा दिनों तक बरकरार रहती है तथा खरपतवार भी नियंत्रित रहते हैं।
अंत-सस्यन
प्रति 4 वर्ग मी. क्षेत्र में एक अरंडी के पौधों का रोपण का हल्दी के खेतों में अर्द्धछाया व अतिरिक्त आमदनी ली जा सकती है। प्रत्येक दो पंक्ति हल्दी के बाद एक पंक्ति में मकई अथवा मिर्च की खेती भी कर अतिरिक्त आमदनी प्राप्त किया जा सकता है।
देखभाल
फसल के प्रारंभिक अवस्था में प्रायः चार बार निकाई-गुड़ाई कर खरपतवार नियंत्रित किये जा सकते हैं।
सिंचाई
प्रायः 5-7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती अहि। भारी मिट्टी वाले क्षेत्र में पुरे फसल के समय में 20 व हल्की मिट्टी वाले क्षेत्र में 30 बार सिंचाई की जाती है।
हल्दी की पौधा संरक्षण
कीट
सौभाग्य से इस फसल के कीड़े के रूप में बहतु दुश्मन नहीं है। कुछ का वर्णन निम्न है-
कंद मक्खी
यह मक्खी कंद को विकास के क्रम में खाता है एवं कंद को सड़ा देता है। फोरट 10 जी के दाने 10 किली प्रति हेक्टेयर के हिसाब से प्रयोग कर इस मक्खी को नियंत्रित किया जा सकता है।
बारुथ
ये कीड़े पत्तियों को नष्ट करते हैं। इनको नियंत्रित करने के लिए डाईमेथोएट या मिथाएल डेमेटॉन का 2 मिलि० प्रति लीटर पानी का घोल अथवा केल्थेन या घुलनशील सल्फर 3 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल व्यवहार करें।
हल्दी में लगने वाले रोग
कुछ रोग इस फसल को अच्छा खासा नुकसान पहुंचाते हैं वे हैं-
कंद सड़न
हल्दी की सभी किस्में इस रोग से प्रभावित होती है। इसकी रोकथाम उचित सस्यन विधि अथवा रसायनों द्वारा की जाती है। इस रोग से प्रभावित पौधों के ऊपरी भागों पर धब्बे दिखाई पड़ते है और अंत में पौधे सूख जाते है। इसकी रोकथाम हेतु प्रभावित क्षेत्र को खोदकर बौर्डियोक्स मिश्रण से उपचारित कर लेते हैं। कंद रोपण के समय कंदों को डाईथेन एम्-45 के 0.3% घोल से आधे घंटे के लिए उपचारित कर तब कंद का रोपण करें। कंद मक्खी को भी नियंत्रित करना चाहिए।
पर्णचित्ती पर्ण – झुलसन
पर्णचित्ती के कारण पत्तियों के विकास काल में यह रोग पत्तों पर धब्बों के रूप में विकसित होता है। उपज को काफी कम कर देता है। इसके नियंत्रण हेतु भी डाईथेन एम् – 45 के 0.3 % घोल 15 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार करना चाहिए।
उच्च सहिष्णु क्षमता वाली किस्म के उर्प में मेघा हल्दी-1 को उपयोग में लाया जा सकता है।
कंद को जमीन से निकालना
फसल 7-9 महीने में तैयार हो जाती है। कंदों को जोतकर अथवा खोदकर निकला लेना चाहिए।
उपज
ताजा- 80-100 क्विंटल प्रति एकड़
क्योर्ड- 16-20 क्विंटल प्रति एकड़
क्योरिंग व सुखाना
व्यवसायिक सुखा हल्दी बनाने के लिए इसके कंदों को जमीन से निकालने के एक सप्ताह के अंदर उबाल लेना चाहिए। यही क्योरिंग है। यह दो प्रकार से किया जा सकता है।
घरेलू
मिट्टी अथवा लोहे के बर्तन में गाय के गोबर के घोल में उबालकर।
सी.एफ. टी.आर. विधि
गैलेबेनाइज्ड लोहे के बर्तन में 0.1% सोडियम कार्बोनेट/बाई कार्बोनेट के घोल में 1-1.5 घंटे तक उबालकर। एक घोल को अधिकतम दो बार प्रयोग करें। रसायनिक विधि द्वारा क्योरिंग करने से प्रकन्द का रंग आकर्षक नारंगी-पीलापन रंग का विकसित होता है। इस विधि में मातृ व नये कंदों को अलग-अलग उबालना चाहिए। उबले कंदों को धूप में 10-15 दिनों तक सुखा लेना चाहिए।
पॉलिश करना
इन सूखे कूड़े कंदों को नाचने वाले ड्रम में हल्दी पाउडर डालकर पॉलिश कर लिया जाता है। जिसके द्वारा कंद पर अब आकर्षक बाहरी पतर चढ़ जाता है।
भण्डारण
बीज हेतु ताजे निकले कंदों को ठन्डे व सूखे स्थान पर भण्डारण करना चाहिए। सुखाये गये कंद 4x3x2 मी. के गड्ढों हल्दी के पत्तों के बीच रखकर ऊपर से मिट्टी का लेप लगाकर भंडारित किया जाता है।
प्लास्टिक के बोरों जिनके भीतरी हिस्सों में अल्काथेन का परत चढ़ा हो भर कर धूमकक्ष में भंडारित किया जा सकता है। पर इस विधि में पहली विधि के बनिस्पत गुणों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
पादप प्रवर्धन में उत्तक संवर्धन का प्रयोग
वैसे तो बतौर हल्दी के कंद ही खेती हेतु प्रयोग में लाये जाते हैं। इसके शीघ्र फैलाव के लिए कंद का प्रयोग के धीमी विधि है। इसकी कंदों में एक शिथिल कला काल की समस्या होती है जो अंकुरण के आड़े आता है। अतः एक्से कंद सिर्फ वर्षा काल में अंकुरित होते हैं। साथ ही एक कंद से अधिकतम 5-6 पौधे ही मिलते हैं। ऐसे में उत्तक संवर्धन विधि का प्रयोग शिथिल काल की समस्या से छुटकारा दिलाता है। इस विधि के प्रयोग से अच्छी उपज वाले किस्मों के पौधे बड़े पैमाने पर तैयार किये जाते हैं। इस विधि में बिना कैलस बनाए सीधे तना उत्तक द्वारा हिस्से द्वारा विकसित व् नाडनौडा व अन्य द्वारा प्रमाणीकृत विधि का प्रयोग कर बड़े पैमाने पर पौधे तैयार किये जाते हैं।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार