खड़े मसालों की उन्नत खेती कर लाखो कमाए देखे किस प्रकार से की जाती है इसकी खेती

10 Min Read
खबर शेयर करें

कृषि अभी भी है लाभकारी रोजगार

केरल के कोझीकोड जिले के कुराचुंडू के 65 वर्षीय प्रगतिशील किसान श्री जॉर्ज थॉमस पनाकावायल की जिंदगी बदल गई है, जॉर्ज थॉमस की कहानी उन लोगों को प्रेरणा प्रदान करेगी जो यह कहते हैं कि कृषि अब लाभकारी कारोबार नहीं रह गया है। एक नए किसान से लेकर पुरस्कार विजेता दूरदर्शी व्यक्ति के रूप में उनकी सफलता भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान कोझीकोड द्वारा कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) के माध्यम से किये गए कार्य का जीवंत प्रमाण है। परंपरागत काली मिर्च उत्पादक के रूप में जॉर्ज स्थानीय किस्मों की पैदावार कर रहे थे। इनकी बेलों से उत्पादन अच्छा नहीं होता और ये जल्दी मुरझा जाती थी। किसी अन्य परंपरागत किसान की तरह उनका जीवन भी उतार-चढ़ाव से भरा हुआ था।

नई पारी की शुरूआत

सन् 2007 में कोझीकोड जिले के पेरावुन्नामुझी स्थित आईआईएसआर के कृषि विज्ञान केंद्र में मशरूम की खेती के बारे में परीक्षण कार्यक्रम ने उनकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी। यह कृषि में अच्छी भागीदारी की शुरूआत थी। के.वी.के की मदद और मार्गदर्शन में एक लाख रुपए के निवेश से उन्होंने मशरूम की खेती की इकाई शुरू की। बाद में जॉर्ज पनाकावायल ने आईआईएसआर से पांच किलोग्राम प्रभा किस्म की अदरक और वारडा किस्म की हल्दी लेकर दोनों की खेती शुरू की। उन्होंने फसल प्रबंधन का वैज्ञानिक तरीका अपनाया और के.वी.के. और आईआईएसआर के विशेषज्ञों की खेती के हर चरण में मदद ली, जिसका अच्छा लाभ हुआ। वर्ष 2010 में उन्होंने के.वी.के के भागीदारी बीज उत्पादन कार्यक्रम के माध्यम से 1000 किलोग्राम हल्दी और 500 किलोग्राम अदरक अन्य किसानों को बेची। अगले वर्ष केवल 15 प्रतिशत जमीन में उन्होंने 500 किलोग्राम हल्दी और 400 किलोग्राम अदरक पैदा की। वर्ष 2007 में काली मिर्च की अच्छी पैदावार देने वाली आईआईएसआर की श्रीकारा, शुभकारा, पंचमी और पूर्णिमा की 300 बेले लगाईं। रोपण के तीसरे वर्ष बेलों से अच्छी फसल मिलने लगी और उन्हें वर्ष में 200 किलोग्राम की पैदावार मिली, जिससे 75,000 रुपए का उन्हें शुद्ध लाभ हुआ। अब वह नारियल, सुपारी, जायफल, साबूदाना और अन्य कंद की फसलें भी उगा रहे हैं। कृषि मंत्रालय द्वारा 2009 में संग्रहित 101 किसानों की सफलता की कहानी में उम्मीद के रूप में उनका उल्लेख किया गया। वह इसका सारा श्रेय आईआईएसआर की मदद को देते हैं।

मसालों की खेती और भारतीय कृषि अनुसंधान का योगदान

देश में मसाला अनुसंधान की मामूली शुरूआत 1975 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् द्वारा मसालों के शहर कालीकट में केन्‍द्रीय रोपण फसल अनुसंधान संस्‍थान की स्थापना के साथ हुई। 1975 में ही मसालों के अनुसंधान को उस समय बल मिला जब आईसीएआर ने अकेली और एकमात्र भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान की स्थापना की। यह संस्थान कालीकट शहर से 11 किलोमीटर दूर चेवालूर में 14.3 हेक्टेयर क्षेत्र में स्थापित किया गया है। आईआईएसआर का प्रयोगात्मक कृषि फार्म कालीकट से 51 किलोमीटर दूर पेरूवन्नाभुझी में है। अनुसंधान फार्म पट्टे पर 94.8 हेक्टेयर जमीन में है, जिसमें मसालों की विविध किस्मों के पौध रोपण और संरक्षण का कार्य होता है। आईआईएसआर देश में मसालों पर सबसे बड़े मसाला अनुसंधान नेटवर्क, अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजनाओं का मुख्यालय भी है। इस संस्थान में काली मिर्च, इलायजी, अदरक, हल्दी, लौंग, दालचीनी, जमैका की गोल मिर्च, बनिला और शिमला मिर्च की फसलें उगाई जाती है। आईआईएसआर में मसालों का सबसे बड़ा सुरक्षित भंडार है, जिसमें 2575 किस्म की काली मिर्च, 435 किस्म की इलायची, 685 अदरक और 1040 हल्दी की किस्में है। इसके अलावा संस्थान में बनिला, शिमला मिर्च और अऩ्य पौध प्रजातियां जैसे दालचीनी, लौंग, जायफल और दारू-सिला के जीन का भंडारण है।    

मसाला अनुसंधान में संस्थान का महत्वपूर्ण योगदान उच्च उत्पादकता वाली मसाला की किस्मों का विकास है, जिन पर सूखे, कीटों और बीमारियों का असर नहीं होता। संस्थान ने मसालों के सतत् उत्पादन के लिए विभिन्न प्रौद्योगिकियों का भी विकास किया है।

आईआईएसआर द्वारी जारी मसालों की किस्में

मसाला अनुसंधान में संस्थान का महत्वपूर्ण योगदान ऊंची पैदावार देनेवाली किस्में हैं, जिन पर सूखा, कीटों और बीमारियों का असर नहीं होता।

  • काली मिर्च की आठ किस्में संस्थान ने जारी की है। श्रीकारा शुभकारा, पंचत्री और पूर्णिमा किसानों के खेतों में पहुंच गई हैं। ताजा किस्मों में आईआईएसआर थेवम, आईआईएसआर मालावार एक्सेल, आईआईएसआर गिरिमुंडा और आईआईएसआर शक्ति हैं।
  • आईआईएसआर विजेता-1, आईआईएसआर अविनाश, आईआईएसआर कोडागू सुवासिनी इलायची की किस्में हैं जिनका विकास आईआईएसआर के इलायची अनुसंधान केंद्र (सीआरसी) अप्पांगला, कोडागू (कर्नाटक) द्वारा किया गया है।
  • अदरक की किस्में आईआईएसआर वारदा, आईआईएसआर रेजाथा, आईआईएसआर महिमा देश के अदरक उत्पादन क्षेत्रों के लिए उपयोगी है।


संस्थान द्वारा उच्च गुणवत्ता वाली हल्दी की आठ किस्में अब तक जारी की जा चुकी हैं। सुगुना, सुदर्शन, प्रभा, प्रतिभा और आईआईएसआर अलेप्पी सुप्रीम अपने गुणों के कारण जानी जाती हैं। आईआईएसआर विश्वश्री जायफल की झाड़ीदार किस्म दक्षिण भारत में सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं। जायफल की एक अन्य किस्म केरलश्री हाल ही में जारी की गई है। आईआईएसआर की दालचीनी की दो महत्वपूर्ण किस्में नवश्री और नित्यश्री हैं।

सफेद मिर्च 

सफेद मिर्च काली मिर्च की ऐसी किस्म है जिससे किसानों को काफी फायदा होता है। आकर्षक क्रीमी सफेद रंग, हल्के सुगंध, आकर्षक गंध, अच्छे स्वाद और किसी भी भोजन में इस्तेमाल के योग्य होने के कारण यह यूरोपीय देशों के बाजारों में विशेष रूप से लोकप्रिय है। इसका बाजार में 50 प्रतिशत अधिक मूल्य मिलता है। सफेद मिर्च सूखी बेरियों से पैदा की जाती है। लेकिन यह परंपरागत तरीका और अन्य यांत्रिक तरीके थोक उत्पादन के लिए काफी नहीं थे। सफेद मिर्च की गुणवत्ता भी चिंता का विषय है। आईआईएसआर के वैज्ञानिक ने पकी हरी मिर्च को सफेद मिर्च में बैक्टेरिया के फर्मेंटेशन से बदलने के लिए एक प्रौद्योगिकी का विकास किया है। पकी हरी मिर्च को वैसीलिस वैक्टीरिया के कल्चर युक्त स्टरलाइज पानी में धोने के बाद पांच दिन कमरे के तापमान पर इनक्यूबेटर में रखा जाता है। उसके बाद इसे बहते हुए पानी में धोया जाता है जिससे यह पूरी तरह साफ हो जाती है। उसके बाद क्रीमी सफेद बेरी को फर्मेंटेशन से सुखाकर उच्च गुणवत्ता वाली मिर्च मिलती है।    

आईआईएसआर के पेरूवन्नामुझी कृषि विकास केंद्र के वैज्ञानिकों द्वारा ‘ब्रोइलर गोट रियरिंग’ उन क्षेत्रों के किसानों के लिए वरदान है जहां हरा चारा कम होता है। इस तरीके से 15 से 30 दिन के बकरी के बच्चों का चयन तब किया जाता है, जब वे हरी पत्तियां खाना नहीं शुरू करते। इनको इनकी मां से अलग कर बांस या लकड़ी के खंभे से बने शेड्स में अलग रखा जाता है। उचित रोशनी, धूप और सफाई का हर स्तर पर ध्यान रखा जाता है।    

शुरू में इन बच्चों को ठोस खाना दिया जाता है और धीरे-धीरे उसकी मात्रा बढ़ाई जाती है। इन्हें मछली के तेल मिश्रित लिवर टॉनिक भी दिया जाता है। बकरी के बच्चों के उचित विकास के लिए मां का दूध भी दिन में दो या तीन बार दिया जाता है। केरल के कोझीकोड जिले के पेरूवन्नामुझी में विभिन्न महिला स्व-सहायता समूह यथा कावेरी कुटुम्बश्री और निधि तथा अनेक किसान पिछले पांच वर्षों से इस तरह से बकरी पालन रहे हैं। समूह के सदस्यों के अनुसार यह तरीका उनके लिए बहुत उपयुक्त है जिनके पास जानवरों को चराने के लिए जमीन नहीं है। कम लागत, अधिक फायदा, आसान जानवर प्रबंधन और बकरी के मांस की अच्छी मात्रा के कारण किसानों में इस तरह का बकरी पालन बहुत बढ़ रहा है। ये बकरी के बच्चे 120-140 दिन में 25-33 किलोग्राम के हो जाते हैं, जबकि परंपरागत तरीके से बकरी पालन में वजन केवल 10 किलोग्राम ही हो पाता है और इसमें भी छह महीने लग जाते हैं। इस तरीके से बकरी के एक बच्चे पर खर्च 1200 रुपए आता है। इस तरीके से 5050 से 7050 रुपए (जीवित वजन के आधार पर 250 रुपए प्रतिकिलो) तक का शुद्ध लाभ आसानी से होता है।

स्त्रोत : अब्दु मनाफ के. सूचना सहायक, पत्र सूचना कार्यालय, तिरूवनंतपुरम


खबर शेयर करें
Share This Article
By Harry
Follow:
नमस्ते! मेरा नाम "हरीश पाटीदार" है और मैं पाँच साल से खेती बाड़ी से जुड़ी हर प्रकार की जानकारी, अनुभव और ज्ञान मैं अपने लेखों के माध्यम से लोगों तक पहुँचाता हूँ। मैं विशेष रूप से प्राकृतिक फसलों की उचित देखभाल, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का सामना, और उचित उपयोगी तकनीकों पर आधारित लेख लिखने में विशेषज्ञ हूँ।