Kheti badi : दलहनी फसलों में हमारे प्रदेश में चने के बाद अरहर का स्थान है यह फसल अकेली तथा दूसरी फसलों के साथ भी बोई जाती है। ज्वार , बाजरा, उर्द और कपास, अरहर के साथ बोई जाने वाली प्रमुख फसलें हैं। प्रदेश के कुल क्षेत्रफल, कुल उत्पादन तथा उत्पादकता के विगत 5 वर्षो के आंकड़े, परिशिष्ट 2 में दिये गये हैं। हमारे प्रदेश की उत्पादकता अखिल भारतीय औसत से ज्यादा है। सघन पद्धतियों को अपनाकर इसे और बढ़ाया जा सकता है।
अरहर की खेती के लिए को चुनाव
अरहर की फसल के लिए बलुई दोमट वा दोमट भूमि अच्छी होती है। उचित जल निकास तथा हल्के ढालू खेत अरहर के लिए सर्वोत्तम होते हैं। लवणीय तथा क्षारीय भूमि में इसकी खेती सफलतापूर्वक नहीं की जा सकती है।
अरहर की खेती के लिए खेत की तैयारी
खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद 2-3 जुताइयां देशी हल से करनी चाहिए। जुताई के बाद पाटा लगाकर खेत को तैयार कर लेना चाहिए।
like to read –MSP 2024 : सरकार किसानों से 2400 रूपए प्रति क्विंटल खरीदेगी गेहूं, रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया हुई शुरू
अरहर की खेती के लिए उन्न्तिशील प्रजातियॉ
अरहर की प्रजातियों का विस्तृत विवरण निम्नवत् है
क सं. | प्रजाति | बोने का उपयुक्त सयम | पकने की अवधि (दिनो मे) | उपज विशेषतायें (कु./हे.) | उपयुक्त क्षेत्र एव विशेषताए |
क. अगेती प्रजातियां |
1 | पारस | जून प्रथम सप्ताह | 130-140 | 18-20 | उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्रों में इस प्रजाति की फसल ली जा सकती है। |
2 | यू.पी.ए.एस.-120 | जून प्रथम सप्ताह | 130-135 | 16-20 | सम्पूर्ण उ.प्र.(मैदानी क्षेत्र) नवम्बर में गेहूं बोया जा सकता है |
3 | पूसा-992 | जून प्रथम सप्ताह | 150-160 | 16-20 | उकठा रोग अपरोधी |
4 | टा-21 | अप्रैल प्रथम सप्ताह तथा जुन के प्रथम सप्ताह | 160-170 | 16-20 | सम्पूर्ण उ.प्र. के लिए उपर्युक्त |
देर से पकने वाली प्रजातियां (260-275 दिन) |
5 | बहार | जुलाई | 250-260 | 25-30 | सम्पूर्ण उ.प्र. बंझा रोग अवरोधी |
6 | अमर | जुलाई | 260-270 | 25-30 | सम्पूर्ण उ.प्र. बंझा अवरोध मिश्रित खेती के लिये उपयुक्त |
7 | नरेन्द्र अरहर-1 | जुलाई | 260-270 | 25-30 | सम्पूर्ण उ.प्र. बंझा अवरोध एवं उकठा मध्यम अवरोधी |
8 | आजाद | जुलाई | 260-270 | 25-30 | तदैव |
9 | पूसा-9 | जुलाई | 260-270 | 25-30 | बंझा अवरोधी सितम्बर में बुवाई के लिए उपयुक्त |
10 | पी.डी.ए.-11 | सितम्बर का प्रथम पखवारा | 225-240 | 18-20 | ,, |
11 | मालवीय विकास(एम.ए.6) | जुलाई | 250-270 | 25-30 | उकठा एवं बंझा अवरोधी |
12 | मालवीय चमत्कार (एम.ए.एल.13) | जुलाई | 230-250 | 30-32 | बंझा अवरोधी |
13 | नरेन्द्र अरहर 2 | जुलाई | 240-245 | 30-32 | बंझा एवं उकठा अवरोधी सम्पूर्ण उ.प्र. |
like to read –Sarso Rates : सरसों के भाव में कब आएंगी तेजी, देखिए सरसों के भाव को लेकर सटीक तेजी मंदी रिपोर्ट
अरहर की खेती के लिए बुवाई का समय
देर से पकने वाली प्रजातियां जो लगभग 270 दिन में तैयार होती हैं, की बुवाई जुलाई माह में करनी चहिए। शीघ्र पकने वाली प्रजातियों को सिंचित क्षेत्रों में जून के मध्य तक बो देना चाहिए, जिससे यह फसल नवम्बर के अन्त तक पक कर तैयार हो जाय और दिसम्बर के प्रथम पखवारे में गेहूं की बुवाई सम्भव हो सके। अधिक उपज लेने के लिए टा-21 प्रजाति को अप्रैल प्रथम पखवार में (प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में तरार्इ को छोड़कर) ग्रीष्म कालीन मूंग के साथ सह-फसल के रूप में बोने के लिए जायद में बल दिया जा चुका है। इसके तीन लाभ है
(अ) फसल नवम्बर के मध्य तक तैयार हो जाती है एवं गेहूं की बुवाई में देर नहीं होती है
(ब) इसकी उपज जून में (खरीफ) बोई गई फसल से अधिक होती है।
(स) मेड़ो पर बोने से अच्छी उपज मिलती है।
अरहर की खेती के लिए बीज का उपचार
सर्वप्रथम एक कि.ग्रा. बीज को 2 ग्राम थीरम तथा एक ग्राम कार्बोन्डाजिम के मिश्रण अथवा 4 ग्राम ट्रइकोडर्मा + 1 ग्राम कारबाक्सिन या कार्बिन्डाजिम से उपचारित करें। बोने से पहले हर बीज को अरहर के विशिष्ट राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें। एक पैकेट 10 कि.ग्रा. बीज के ऊपर छिड़ककर हल्के हाथ से मिलायें जिससे बीज के ऊपर एक हल्की पर्त बन जाये। इस बीज की बुवाई तुरन्त करें। तेज धूप से कल्चर के जीवणु के मरने की आशंका रहती है। ऐसे खेतों में जहां अरहर पहली बार काफी समय बाद बोई जा रही हो, कल्चर का प्रयोग अवश्य करें।
अरहर की खेती के लिए बीज की मात्रा तथा बुवाई विधि
बुवाई हल के पीछे कूंड़ों में करनी चाहिए। प्रजाति तथा मौसम के अनुसार बीज की मात्रा तथा बुवाई की दूरी निम्न प्रकार रखनी चाहिए। बुवाई के 20-25 दिन बाद पौधे की दुरी, सघन पौधे को निकालकर निश्चित कर देनी चाहिए। यदि बुवाई रिज विधि से की जाए तो पैदावार अधिक मिलती है।
प्रजाति | बुवाई का समय | बीज की दर कि.ग्रा./हे. | बुवाई की दूरी (से.मी.) |
पंक्ति से पंक्ति | पौधे से पौधे | |||
टा-21 (शुद्ध फसल हेतु) | जून का प्रथम पखवारा | 12-15 | 60 | 20 |
टा 21 (अप्रैल में मूंग के साथ) | टा 21 (अप्रैल में मूंग के साथ) | 12-15 | 75 | 20 |
यू.पी.ए.एस.एल.-120 (शुद्ध फसल हेतु) | मध्य जून | 15-20 | 45-50 | 15 |
आई.सी.पी.एल.-151 | मध्य जून | 20-25 | 50 | 15 |
नरेन्द्र-1 | जुलाई प्रथम सप्ताह | 15-20 | 60 | 20 |
अमर | जुलाई प्रथम सप्ताह | 15-20 | 60 | 20 |
बहार | जुलाई प्रथम सप्ताह | 15-20 | 60 | 20 |
आजाद | जुलाई प्रथम सप्ताह | 15 | 90 | 30 |
मालवीय-13 (चमत्कार) | जुलाई प्रथम सप्ताह | 15 | 90 | 30 |
मालवीय विकास | जुलाई प्रथम सप्ताह | 15 | 90 | 30 |
नरेन्द्र अरहर-2 | जुलाई | 15 | 60 | 20 |
पूसा बहार-9 | जुलाई | 15 | 60 | 20 |
पूर्वी उत्तर प्रदेश में बाढ़ या लगातार वर्षा के कारण बुवाई में विलम्ब होने की दशा में सितम्बर के प्रथम पखवारे में बहार की शुद्ध फसल के रूप में बुवाई की जा सकती है, परन्तु कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. एवं बीज की मात्रा 20-25 कि.ग्रा./हे. की दर से प्रयोग करना चाहिए।
like to read – मात्र 15 हजार में Drip Irrigation System लगाने के पूरी जानकारी (1 एकड़ ड्रिप मॉडल)
अरहर की खेती के लिए उर्वरकों का प्रयोग
अरहर की अच्छी उपज लेने के लिए 10-15 कि.ग्रा. नत्रजन, 40-45 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 20 किग्रा. सल्फर की प्रति हे. आवश्यकता होती है। अरहर की अधिक से अधिक उपज के लिए फास्फोरस युक्त उर्वरकों जैसे सिंगल सुपर फास्फेट, डाई अमोनियम फास्फेट का प्रयोग करना चाहिए। सिंगिल सुपर फास्फेट प्रति हे. 250 कि.ग्रा. या 100 कि.ग्रा. डाई अमोनियम फास्फेट तथा 20 किग्रा. सल्फर पंक्तियों में बुवाई के समय चोंगा या नाई सहायता से देना चाहिए जिससे उर्वरक का बीज के साथ सम्पर्क न हो। यह उपयुक्त होगा कि फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा सिंगिल सुपर फास्फेट से दी जाय जिससे 12 प्रतिशत सल्फर की पूर्ति भी हो सके। यूरिया खाद की थोड़ी मात्रा (15-20 कि.ग्रा. प्रति हे.) केवल उन खेतों में जो नत्रजन तत्व में कमजोर हो, देना चाहिए। उर्द जैसी सह-फसलों को अरहर के लिए प्रयुक्त खाद की आधी मात्रा दे। ज्वार तथा बाजरा की सह फसलों के रूप में बुवाई के समय उनकी पंक्तियों में 20 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हे. की दर से दें तथा एक महीना बाद 10 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर की टापड्रेसिंग करें। सितम्बर में बुवाई हेतु 30 से 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर नत्रजन के प्रयोग से अच्छी उपज प्राप्त होती है।
अरहर की खेती के लिए सिंचाई
अरहर टा-21 तथा यू.पी.ए.एस.-120 तथा आई.सी.पी.एल.-151 को पलेवा करके तथा अन्य प्रजातियों को वर्षाकाल में पर्याप्त नमी होने पर बोना चाहिए। खेत में कम नमी की अवस्था में एक सिंचाई फलियां बनने के समय अक्टूबर माह में अवश्य की जाय। देर से पकने वाली प्रजातियों में पाले से बचाव हेतु दिसम्बर या जनवरी माह में सिंचाई करना लाभप्रद रहता है।
like to read- Sarso Rates: सरसों के भाव फरवरी महीने में घटेंगे या बढ़ेंगे, देखिए सरसों के भाव को लेकर तेजी मंदी रिपोर्ट
अरहर की खेती के लिए निकाई-गुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण
क्र. सं. | शाकनाशी का नाम | मात्रा प्रति हे.(व्यपारिक पदार्थ) | मात्रा प्रति एकड़ (व्यपारिक पदार्थ) |
1 | एलाक्लोर 50 डब्लू.पी. लासो (बुवाई के दो दिनों में) | 4.0 से 5.0 किग्रा. | 1.6-2.0 किग्रा |
2 | फ्लूक्लोरेलिन 45 ई.सी. बेसलिन (बुवाई के तुरन्त पहले स्प्रे करने के बाद मृदा में मिलाकर) | 1500-2000 मिली. | 600 से 800 मिली. |
3 | पेडीमिथालीन 30 र्इ.सी.स्टाम्प (बुवाई के तुरन्त बाद) | 2500-3000 मिली. | 150-200 मिली. |
4 | आक्सीफ्लोरफेन 23.5 ई.सी. गोल/जारगोर (बुवाई के तुरन्त बाद) | 400-500 मिली. | 150-200 मिली. |
5 | क्विजैलोफाप 5 ई.सी. टर्गासुपर (बुवाई के 15-20 दिन बाद ) (केवल घास कुल के खरपतवारों का नियंत्रण) | 800-1000 मिली. | 300-400 मिली. |
नोट
क्रम 1 से 4 पर अंकित शाकनाशियों द्वारा घासकुल एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का नियंत्रण हो जाता है।
फसल सुरक्षा
(अ) कीट
पत्ती लपेटक कीट
पहचान एवं हानि की प्रकुति
इस कीट की सूंडी हल्के पीले रंग की होती है तथा प्रौढ़ कीट (पतंगा) छोटा एवं गहरे भूरे रंग का होता है। इस कीट की सूड़ी चोटी की पत्तियां को लपेटकर जाला बुनकर उसी में छिपकर पत्तियों को खेती है। अगेती फसल में यह फूलों एवं फलियों को भी नुकसान पहॅुचाती है।
अरहर की फली की मक्खी
आर्थिक क्षति स्तर
5 प्रतिशत प्रकोपित फली।
–Kisan News: पशुपालन से पैसा कमाना चाहते हो तो इन तीनों का करें पालन, कम लागत में होगा अत्यधिक मुनाफा
पहचान एवं हानि की प्रकृति
यह छोटी, चमकदार काले रंग की घरेलू मक्खी की तरह परन्तु आकार में छोटी मक्खी होती है। इसकी मादा फलियों में बन रहे दानों, के पास फलियों के अपने अण्डरोपक की सहायता से अण्डे देती है जिससे निकलने वाली गिडारे फली के अन्दर बन रहे दाने को खाकर नुकसान पहुचाती है।
आर्थिक क्षति स्तर -2-3 अण्डे या 2-3 नवजात सूंड़ी या एक पूर्ण विकसित सूंड़ी प्रति पौधा या 5 से 6 पतंगे प्रति गन्धपास प्रति रात्रि लगातार तीन रात्रि तक।
पहचान एवं हानि की प्रकृति
प्रौढ़ पतंगा पीले बादामी रंग का होता है। अगली जोड़ी पंख पीले भूरे रंग के होते है तथा पंख के मध्य में एक काला निशान होता है। पिछले पंख कुछ चौड़े मटमैले सफेद से हल्के रंग के होते है तथा किनारे पर काली पट्टी होती है। सूंड़ियां हरे, पीले या भूरे रंग की होती है तथा पार्श्व में दोनों तरफ मटमैले सफेद रंग की धारी पायी जाती है। इसकी गिडारे फलियों के अन्दर घुसकर दानों को खाती है। क्षतिग्रस्त फलियों में छिद्र दिखाई देते है।
पिच्छकी शलभ (प्यूम माथ)
आर्थिक क्षति स्तर
5 प्रतिशत प्रकोपित फली।
पहचान एवं हानि की प्रकृति
प्रौढ़ पंतगा आकार में छोटा एवं तथा हल्का पाण्डु वर्गीय होता है। जिसके अगले पंख पिच्छकी होते हैं तथा प्रत्येक पंखों पर दो दो गहरे धब्बे पाये जाते है। पिछले जोड़ी पंखों पर बीच में कॉटे जैसे शल्क पाये जाते है।
कीट की सूंड़ियॉ फलियों को पहले ऊपर की सतह से खुरचकर खाती है फिर बाद में छेदकर अन्दर घुस जाती है तथा दानों में छेद बनाकर खाती है।
फलीबेधक (इटलो जिकनेला) : आर्थिक क्षति स्तर
5 प्रतिशत प्रकोपित फली।
पहचान एवं हानि की प्रकृति
प्रौढ़ कीट भुरे रंग को चोंच युक्त मुखांग का होता है। इसके ऊपरी पंख के बीच के किनारों पर पीले सफदे रंग का बैण्ड होता है। पिछले पंख के किनारों पर लाइन पाई जाती है। कीट की सूड़ियां फूलों, नई फलियों तथा फलियों में बन रहे बीजों को खाकर नुकसान पहुचाती है। प्रकोपित फलियॉ रंगहीन तथा लिसलिसी हो जाती है जिससे दुर्गन्ध आती है।
like to read-PM Kisan yojana : किसानों के लिए खुशखबरी, इस दिन खाते में आएंगा 16वी किस्त का पैसा, देखें अपडेट
धब्बे दार फलीबेधक (मौरूका टेस्टुलेलिस) : आर्थिक क्षति स्तर
5 प्रतिशत प्रकोपित फली।
पहचान एवं हानि की प्रकृति
इस कीट का शलभ भूरे रंग का होता है इसके अगले पंखों पर दो सफेद धब्बे होते है एवं पंख के किनारे पर छोटे-छोटे काले धब्बे एवं लहरियादार धारी होती है। इसके पिछले पंख कुछ कुछ पीले सफेद धब्बे होते है और इनके किनारे पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक लहरियादार धब्बे फैले होते है। कीट की सूड़ियॉ हरे सफेद रंग की तथा भूरे सिर वाली लगभग दो सेमी. लम्बी होती तथा इनके प्रत्येक खण्ड में छोटे-छोटे पीले एवं हरे भूरे रंग के रोम पाये जाते है। सूड़ियॉ कलिकाओं, फूलों तथा फलियों को जाले से बॉधकर उसमें छेद बनाकर बीज को खा जाती है।
अरहर का फलीबेधक (नानागुना ब्रेबियसकुला)
पहचान एवं हानि की प्रकृति
नवजात सूंड़ी पीले सफेद एवं गहरे भूरे रंग के सिर वाली होती है इसकी 6 अवस्थाएं पायी जाती हैं तथा इन अवस्थओं में इनका रंग परिवर्तनीय होती है। पूर्ण विकसित सूंड़ी 14 से 17 मिमी. लम्बी हल्के पीले, हल्के भूरे अथवा हल्के सफेद रंग तथा लाल भूरे सिर एवं पार्श्व में पटि्यायुक्त होती है। ये फलियां को जाले में बांधकर छेद करती है और दानों को खाती है।
नीली तितली (लैम्पीडस प्रजातिया)
पहचान एवं हानि की प्रकृति
पूर्ण विकसित सूंड़ी पीली हरी, लाल तथा हल्के हरे रंग की होती है तथा इनके शरीर की निचली सतह छोटे छोटे बालों से ढकी होती है। प्रौढ़ तितली आसतानी नीले रंग की होती है। इसकी सूडियां फलियों को छेदकर उनके दानों को नुकसान पहुचाती है।
माहू (एफिस क्रेक्सीवोरा)
पहचान एवं हानि की प्रकृति
यह एफिड गहरे कत्थई अथवा काले रंग की बिना पंख अथवा पंख अथवा पंख वाली होती है। एक मादा 8-30 बच्चों जन्म देती है तथा इनका जीवनकाल 10-12 दिन का होता है। इसके शिशु एवं प्रौढ़ पौधे के विभिन्न भागो विशेषकर फूलों एवं फलियों से रस चूसकर हानि करते हैं।
अरहर फली बग
पहचान एवं हानि की प्रकृति
प्रौढ़ बच लगभग दो सेन्टीमीटर लम्बा कुछ हरे भूरे रंग का होता है। इसके शीर्ष पर एक शुल युक्त, प्रवक्ष पृष्ठक पाया जाता है । उदर प्रोथ पर मजबूत कॉटे होते हैं। इसके शिशु एवं प्रौढ़ अरहर के तने, पत्तियों एवं पुष्पों एवं फलियों से रस चूसकर हानि पहॅुचाते है प्राकोपित फलियों पर हल्के पीले रंग के धब्बे बन जाते हैं तथा अत्याधिक प्रकोप होने पर फलियॉ सिकुड़ जाती है एवं दाने छोटे रह जाते है।
अरहर की खेती के लिए एकीकृत नाशीजीव प्रबन्धन
- गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करना चाहएि।
- बुवाई मेड़ पर मध्य जून से जुलाई से प्रथम सप्ताह में करना चाहिए।
- 100 किग्रा.डी.ए.पी./हे. की दर से बुवाई के समय कूंड में प्रयोग करना चाहिए।
- पौधों के बीच उचित दूरी (75X25 सेमी.) रखना चाहिए।
- अरहर के साथ ज्वार की ऊॅची लाक वाली प्रजाति की बुवाई करना चाहिए।
- फूल एवं फलियां बनते समय 50-60 वर्ड पर्चर प्रति हे. की दर से लगाना चाहिए।
- नीम के बीज के शत 5 प्रतिशत + साबुन के घोल 1 प्रतिशत का सप्ताह के अन्तराल 2-3 छिड़काव फूल आने एवं फलियों के बनते समय करना चाहिए।
- फूल एवं फलियां बनते समय सप्ताह के अन्तराल पर बराबर निरीक्षण करते रहना चाहिए।
- चने की फलीबेधक कीट के निरीक्षण हेतु पांच गंधपास एवं प्रबन्धन हेतु 20-25 गंधपास/हे. की दर से लगाकर नर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित कर प्रतिदिन प्रातः मार देना चाहिए। पुराने सेप्टा को 14 दिनों पर बदलते रहना चाहिए।
- चने की फलीबेधक कीट के 5-6 प्रौढ़ पतंग औसतन प्रति गंधपास 2-3 दिन लगातार आने पर या 3 से 3 अण्डे या 2-3 नवजात सूंड़ी या एक पूर्ण विकसित सूंड़ी या एक पूर्ण विकसित सूंडी प्रति पौधा दिखाई देने पर या पॉच प्रतिशत प्रकोपित फली होने पर एच.एन.पी.वी 250-300 सूड़ी समतुल्य/हे. की दर से सांयकाल छिड़काव करना चाहिए। घोल में 1 ग्राम टीपाल/ ली. की दर अवश्य मिलाना चाहिए।
- जमीन पर गिरी सूखी पत्तियों के मध्य पाये जाने वाले फलीबेधको के कृमि कोषों को नष्ट कर देना चाहिए।
- अरहर की फली मक्खी से प्रकोपित 5 प्रतिशत फली मिलने पर या माहू या फली चूसक कीटों का प्रकोप होने पर डाईमेथाएट 30 ई.सी. 1 ली. या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 200 मिली. अथवा एसिटामिप्रिड 20 डब्लू.पी. 150 ग्राम प्रति हे. की दर से छिड़काव करना चाहिए।
- अन्य फलीबेधकों से 5 प्रतिशत प्रकोपित फली पाये जाने पर बी.टी.5 प्रतिशत डब्लू.पी. 1.5 किग्रा. इन्डाक्साकार्ब 14.5 एससी 400 मिली., क्यूनालफस 25 ई.सी. 750 मिली., साइपरमेथ्रिन 10 ई.सी. 750 मिली. या डेकामेथ्रिन 2.8 ई.सी. 450 मिली. का प्रति हे. अथवा क्लोरेनट्रनिप्राल 18.5% एस०सी० 150 मिली/हे. अथवा इथियान 50% सी. 1.1.5 ली./हे. अथवा फलूबण्डा अमाइउ 39.35% एस.सी. 100 मिली./हे. 500-700 ली. पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
अरहर की खेती के लिए रोग
अरहर का उकठा रोग
पहचान
यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है। यह पौधों में पानी व खाद्य पदार्थ के संचार को रोक देता है जिससे पंत्तियों पीली पड़कर सूख जाती हैं और पौधा सूख जाता है। इसमें जड़े सड़कर गहरे रंग की हो जाती हैं तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की ऊंचाई तक काले रंग की धारियां पाई जाती है।
उपचार
- जिस खेत में उकठा रोग का प्रकोप अधिक हो, उस खेत में 3-4 साल तक अरहर की फसल नहीं लेना चाहिए।
- ज्वार के साथ अरहर की सहफसल लेने से किसी हद तक उकठा रोग का प्रकोप कम हो जाता है।
- थीरम एवं कार्बेन्डाजिम को 2:1 के अनुपात में मिलाकर 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज उपचारित करना चाहिए।
- ट्राईकोडरमा 4 ग्राम तथा 1 ग्राम कारबाक्सीन या कार्बेन्डाजिम बीज को उपचारित करके इससे उकठा रोग की रोकथाम की जा सकती है।
- 2.5 मिग्रा. ट्राईकोडर्मा को 60-65 किग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर एक सप्ताह बाद प्रति हे. की दर से खेत की तैयारी के समय भूमि में मिला दिया जाय।
अरहर का बन्झा रोग
पहचान
ग्रसित पौधों में पत्तियां अधिक लगती हैं, फूल नहीं आते जिससे दाना नहीं बनता है। पत्तियां छोटी तथा हल्के रंग की हो जाती हैं। यह रोग माइट द्वारा फैलता है।
उपचार
- इसका अभी कोई प्रभावकारी रासायनिक उपचार नहीं निकला है।
- जिस खेत में अरहर बोना हो उसके आसपास अरहर के पुराने एवं स्वयं उगे हुये पौधों को नष्ट कर देना चहिये।
- रोग प्रतिरोधी प्रजातियां जैसे अम्बर या आजाद का चुनाव किया जाए।
अरहर की खेती के लिए सूत्रकृमि
सूत्रकृमि जनित बीमारी की रोकथाम हेतु गर्मी की गहरी जुताई आवश्यक है। 50 किग्रा. निवोली प्रति हे. की दर से प्रयोग करें।
कम अवधि की अरहर की फसल में एकीकृत नाशीजीव प्रबन्धन
- अरहर खेत में चिड़ियों के बैठने के लिये बांस की लकड़ी का टी आकार का 10 खपच्ची प्रति हेक्टर के हिसाब से गाड़ दें।
- प्रथम छिड़काव के 15 दिन पश्चात एच.एन.पी.वी. का 500 एल.ई. प्रति हे. के हिसाब से छिड़काव करना चाहिये।
- द्वितीय छिड़काव के 15 दिन पश्चात जरूरत के अनुसार निम्बोली के 5 प्रतिशत अर्क का छिड़काव करना चाहिये।
मध्यम एवं लम्बी अवधि की अरहर की फसल में एकीकृत कीट प्रबन्धन
- जब शत प्रतिशत पौधों में फूल आ गये हों और फली बनना शुरू हो गया हो। उस समय मोनोक्रोटोफास 0.04 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिये।
- प्रथम छिड़काव के 15 दिन पश्चात डाइमेथोएट 0.03 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए।
- छिड़काव के 10-15 दिन पश्चात आवश्यकतानुसार निम्बोली के 5 प्रतिशत अर्क या नीम के किसी प्रभावी कीट नाशक का छिड़काव करना चहिये।
अरहर की खेती के लिए मुख्य बिन्दु
- बीज शोधन आवश्यक रूप से किया जाय।
- सिंगिल सुपर फास्फेट का फास्फोरस एवं गन्धक हेतु उपयोग किया जाये।
- समय से बुवाई की जाये।
- फली बेधक एवं फली मक्खी का नियंत्रण आवश्यक है।
- विरलीकरण भी आवश्यक है।
- मेड़ो पर बोवाई करनी चाहिये।
- फूल आते समय मानोक्रोटोफास का एक छिड़काव करें।
स्त्राेत : पारदर्शी किसान सेवा याेजना, कृषि विभाग, उत्तरप्रदेश