तिल की खेती के बारे में जानिए : तिल की विभिन्न किस्में और प्राप्त उपज

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तिल की खेती से संबंधित जानकारी लें और पाए दोगुना लाभ

हमारे देश में बागवानी फसलों के साथ दलहन और तिलहन की फसलों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। तिल तिलहन वाली फसलों में आती है। तिलहन फसलों में तिल का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। तेल का उत्पादन वर्ष में 3 बार किया जा सकता है। नकदी फसल के अंतर्गत आने वाली फसल है जिसकी मांग बाजार में हर समय बनी होती है। सर्दी के मौसम में तिल की मांग सबसे ज्यादा होती है क्योंकि तिल से कई प्रकार के उत्पाद बनाए जाते हैं जैसे तिल के लड्डू, तिल के गजक और मिठाई आदि। इसके अतिरिक्त तिल का तेल भी निकाला जाता है जिसकी भी बाजार मांग बहुत होती है। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए किसानों के लिए तिल की खेती फायदेमंद होती है। उचित तरीके से तिल की खेती की जाए तो किसान इससे काफी अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।

आइए, तिल से होने वाले फायदों के बारे में चर्चा करें।

तिल एक ऐसी फसल है जिसमें कई प्रकार के पोषक तत्व पाए जाते हैं, जैसे:

  • तिल के तेल में असंतृप्त फैटी एसिड की मात्रा 85% होती है, जोकि कोलेस्ट्रोल को घटाने और ह्रदय संबंधी रोगों को रोकने में सहायक होती है।
  • तिल के तेल में त्वचा रक्षक और अन्य गुण मौजूद होते हैं, इसलिए तिल के तेल को तेलों की रानी कहा जाता है।
  • तिल के तेल में नीम की पत्तियां मिलाकर उपयोग करने से चर्म रोग की समस्या दूर होती है, साथ ही त्वचा से संबंधित मुंहासे आदि में सहायता मिलती है।
  • तिल दंत रोगियों के लिए भी लाभकारी होता है क्योंकि काला तिल चबा-चबा कर खाने से दांत मजबूत होते हैं और मसूड़े भी स्वस्थ रहते हैं।
  • तिल आंखों की रोशनी बढ़ाने में सहायक होता है, साथ ही कफ, सूजन, आर्थराइटिस के दर्द को कम करता है।
  • तिल में कई प्रकार के आवश्यक पोषक तत्व जैसे कैल्शियम, फास्फोरस, खनिज, नायसिन, लिनोलिक अम्ल और विटामिन A, E, B, B-2 पाए जाते हैं।
  • तिल के बीजों में उच्च गुणवत्ता वाला प्रोटीन और आवश्यक अमीनो अम्ल विशेष रूप से मिथियोनिन पाया जाता है, जो कि वृद्धावस्था को रोकने में मदद करता है।

देश में तिल की खेती से संबंधित राज्य

हमारे देश में तिल की खेती कई राज्यों में होती है जैसे: मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, तमिलनाडु, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल आदि।

तिल की विभिन्न किस्में

तिल की विभिन्न किस्में हैं जिसमें से कई उन्नत किस्मों के बारे में हम जानेंगे जैसे –

JTS – 8 किस्म

JTS – 8 किस्म का विकास वर्ष 2000 में हुआ था। तिल की यह किस्म आल्टरनेरिया, पत्ती धब्बा, जीवाणु अंगमारी और फाइटोफ्थोरा अंगमारी के प्रति सहनशील होती है। JTS – 8 किस्म को पकने में लगभग 86 दिन का समय लगता है। तिल की इस किस्म में पैदावार की बात करें तो लगभग प्रति हेक्टेयर 600 से 700 किलोग्राम तक पैदावार प्राप्त हो जाती है। तिल की इस किस्म में तेल की 52% तक मात्रा पाई जाती है।

TKG – 55 किस्म

TKG – 55 किस्म का विकास वर्ष 1998 में हुआ था। तिल की यह किस्म तना, जड़ सड़न रोग, मेक्रोफोमिना और फाइटोफ्थोरा अंगमारी के प्रति सहनशील होती हैं। TKG – 55 किस्म को पकने में लगभग 70 से 78 दिन का समय लगता है। तिल की इस किस्म में पैदावार की बात करें तो लगभग प्रति हेक्टेयर 630 किलोग्राम तक की पैदावार प्राप्त की जा सकती है। तिल की इस किस्म में तेल की मात्रा 53% तक पाई जाती है।

TKG – 308 किस्म

TKG – 308 किस्म का विकास वर्ष 2008 में हुआ था। तिल की TKG – 308 किस्म तना जड़ संबंधी रोगों के प्रति सहनशील होती है। यह किस्म 80 से 85 दिन में आ जाती है और इससे पैदावार की बात करें तो लगभग प्रति हेक्टेयर में 600 से 700 किलोग्राम पैदावार प्राप्त होती है। तिल की इस किस्म में तेल की मात्रा 48 से 50% तक पाई जाती है।

JT – 11 (PKDS – 11) किस्म

JT – 11 (PKDS – 11) किस्म का विकास वर्ष 2008 में हुआ था। इस किस्म में दाना हल्के भूरे रंग का होता है। तिल की यह किस्म मैक्रोफोमिना रोग से सहनशील होती है। तिल की यह किस्म ग्रीष्मकाल के लिए उपयुक्त मानी जाती है। JT – 11 (PKDS – 11) किस्म को पकने में लगभग 82 से 85 दिन का समय लगता है। इस किस्म की पैदावार की बात करें तो लगभग प्रति हेक्टेयर 650 से 700 किलोग्राम तक की पैदावार प्राप्त हो जाती है।

JT-12 (PKDS – 12) किस्म

JT – 12 (PKDS – 12) किस्म का विकास वर्ष 2008 में हुआ था। तिल की यह किस्म मैक्रोफोमिना रोग से सहनशील होती है। तिल की यह किस्म ग्रीष्मकाल के लिए उपयुक्त मानी जाती है। JT – 12 (PKDS – 12) किस्म को पकने में 82 से 85 दिन का समय लगता है। इस किस्म में पैदावार की बात करें तो लगभग प्रति हेक्टेयर 650 से 700 किलोग्राम पैदावार प्राप्त की जा सकती है। तिल की इस किस्म में 50 से 53% तक तेल की मात्रा पाई जाती है।

जवाहर तिल 306 किस्म

जवाहर तिल 306 किस्म का विकास वर्ष 2004 में हुआ था। तिल की यह किस्म सरकोस्पोरा, पत्ती घब्बा, पोध गलन, फाइलोड़ी और भभूतिया रोग के प्रति सहनशील होती है। जवाहर तिल 306 किस्म को पकने में 86 से 90 दिन का समय लगता है। इस किस्म में पैदावार की बात करें तो लगभग प्रति हेक्टेयर 700 से 900 किलोग्राम पैदावार प्राप्त हो जाती है। तिल की इस किस्म में 52% तक तेल की मात्रा होती है।

तिल की खेती में समय का निर्धारण

तिल की खेती वर्ष में 3 बार की जा सकती है जिसके लिए:

  • रबी सीजन में बुवाई: अगस्त माह के अंतिम सप्ताह से सितंबर माह के प्रथम सप्ताह तक।
  • खरीफ सीजन में बुवाई: जुलाई के माह में।
  • जायद फसल में बुवाई: जनवरी के दूसरे सप्ताह से फरवरी के दूसरे सप्ताह तक।

यह की खेती में मिट्टी और जलवायु का निर्धारण

तिल की फसल मिट्टी की बात की जाए तो तिल की खेती के लिए हल्की और दोमट भूमि होना चाहिए, इसके अतिरिक्त बलुई दोमट और काली मिट्टी भी तिल की खेती के लिए उपयुक्त होती है। मिट्टी का pH मान 5.5 से 8.2 के मध्य हो।
तिल की खेती में जलवायु की बात करें तो ज्यादा बारिश होने या ज्यादा सूखा होने पर तिल की खेती उचित रूप से नहीं होती है। खेती के लिए उपयुक्त जलवायु शीतोष्ण जलवायु होना चाहिए।

कैसे करें खेत तैयार??

तिल की खेती में खेत को तैयार करते समय खरपतवार को पूर्ण रूप से नष्ट कर देना चाहिए। इसकी खेती में खरपतवार नहीं होना चाहिए। खरपतवार को नष्ट करने के बाद में खेत की गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। इसके पश्चात मिट्टी को भुरभुरा बनाने के लिए और समतल करने के लिए दो से तीन जुताई पाटा लगाकर कल्टीवेटर या देशी हल के द्वारा करें। खेत में खाद का प्रयोग करें, जिसके लिए 80 से 100 क्विंटल सड़ी गोबर की खाद को मिलाएं।

तिल की फसल में बीज मात्रा और बीज उपचार

तिल की फसल में बीजों की मात्रा किस प्रकार रखें इस बारे में जानिए इसके लिए यदि तिल की बुवाई छिटकवां विधि से कर रहे हैं तो इसके लिए बीजों की मात्रा प्रति एकड़ 1.6 से 3.80 किलोग्राम रखें।
यदि तिल की बुवाई के लिए कतारों का प्रयोग कर रहे हैं तो इसके लिए सीड ड्रिल का उपयोग करना चाहिए, जिसमें बीजों की मात्रा प्रति एकड़ में 1 से 1.20 किलोग्राम रखना चाहिए।
तिल की बुवाई में मिश्रित पद्धति में बीजों की मात्रा प्रति एकड़ 1 किलोग्राम से ज्यादा नहीं होना चाहिए।
तिल की फसल में बीजों का उपचार करना चाहिए, जिसके लिए प्रति किलोग्राम थिरम या कैप्टान के द्वारा बीजों का उपचार करना चाहिए।

कैसे करें तिल की बुवाई??

यदि देखा जाए तो सामान्य रूप से तिल की बुवाई छिटकवां विधि से की जाती है। छिटकवां विधि से बुवाई करने पर खेतों में निराई गुड़ाई की समस्या आती है। इसलिए सबसे अच्छा उपाय यह है कि तिल की बुवाई पंक्तियों में की जाए, इसमें एक बार निराई गुड़ाई करने से यह समस्या नहीं आती है और उपज भी अधिक प्राप्त होती है। बीजों का वितरण समान रूप से हो, इसके लिए बीज को बालू रेत, सूखी मिट्टी या सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ 1:20 में मिलाकर बुवाई करना चाहिए।
यदि इनके बीच की दूरी की बात करें तो कतारों की आपसी दूरी 30 सेंटीमीटर और पौधों की आपसी दूरी 10 सेंटीमीटर रखना चाहिए, तथा बीजों की बुवाई के लिए गहराई 3 सेंटीमीटर होना चाहिए।

तिल की खेती में खाद और उर्वरक किस मात्रा में करें??

तिल की खेती में खाद उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिए जब खेत तैयार करें उस समय 80 से 100 क्विंटल सड़ी हुई गोबर की खाद को मिला दें। इस मात्रा को अंतिम जुताई के समय मिलाएं। इसके साथ ही प्रति हेक्टेयर में 15 किलोग्राम फास्फोरस, 30 किलोग्राम नत्रजन और 25 किलोग्राम गंधक का उपयोग करें। फास्फोरस और गंधक की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा को बुवाई के समय करें, तथा नत्रजन की शेष बची आधी मात्रा को जब पहली निराई गुड़ाई हो तब प्रयोग करें।

तिल की खेती में सिंचाई कैसे की जाए??

तिल की फसल में आवश्यकतानुसार सिंचाई करना चाहिए। तिल की फसल 50 से 60% तक तैयार हो जाए तब एक सिंचाई अवश्य करें। बारिश के मौसम में तिल की फसल में सिंचाई की आवश्यकता कम होती है, इसलिए आवश्यकतानुसार सिंचाई करें। बारिश ना हो तो अन्य मौसम में आवश्यकता के अनुसार सिंचाई करें।

तिल की खेती में खरपतवार नियंत्रण के उपाय

तिल की खेती में खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए, जिसके लिए निराई गुड़ाई एक अच्छा उपाय है। तिल की खेती में प्रथम निराई गुड़ाई बुवाई के 15 से 20 दिन के पश्चात, निराई गुड़ाई का कार्य बुवाई के 30 से 35 दिन के पश्चात करना चाहिए।
इस समय जब निराई गुड़ाई करें तब विरलीकरण करके पौधों की आपसी दूरी 10 से 12 सेंटीमीटर तक कर देना चाहिए। साथ ही खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रति हेक्टेयर में एलाक्लोर 50 E.C. की 1.25 लीटर मात्रा का प्रयोग दो से 3 दिन के अंदर करना चाहिए।

रोग नियंत्रण के लिए समाधान

तिल की फसल में कई प्रकार के रोग लग जाते हैं, जैसे तिल की फसल को सबसे अधिक नुकसान फाइटोप्थोरा और फिलोडी रोग से होता है। इस रोग के समाधान के लिए बुवाई के समय मिथायल-ओ-डिमेटान 25 E.C. की 1 लीटर मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।
फाइटोप्थोरा झुलसा रोग के समाधान के लिए प्रति हेक्टेयर में कॉपर ऑक्सिक्लोराइड 3 किलोग्राम या मैनकोज़ेब 2.5 किलोग्राम का छिड़काव दो से तीन बार आवश्यकता के अनुसार कर दें।

तिल की फसल में कीट नियंत्रण के लिए समाधान

तिल की फसल में कई प्रकार के कीट भी लग जाते हैं, जैसे तिल की फसल में फली बेधक कीट और पत्ती लपेटक कीट का सबसे अधिक प्रकोप होता है। इन कीटों की रोकथाम के लिए प्रति हेक्टेयर में मिथाइल पैराथियान 2% चूर्ण की 25 किलोग्राम या क्यूनालफास 25 E.C. की 1.25 लीटर मात्रा का छिड़काव करें।

तिल की कटाई का कार्य

तिल की फसल की कटाई का कार्य फसल पक कर तैयार होने के बाद करें। जब पीली हो जाए तथा गिरने लगे या फिर पत्तियां हरे पीले रंग की हो जाएं, तब समझ जाना चाहिए कि फसल पक कर तैयार हो चुकी है। फसल की कटाई करनी चाहिए, फसल की कटाई पेड़ सहित नीचे से करना चाहिए। इसके पश्चात खेतों में ही बंधक बनाकर जगह-जगह पर छोटे-छोटे ढेर बना कर रख दें। पूर्ण रूप से सुख जाए तब डंडे या छड़ के द्वारा पौधों को पीट-पीटकर या हल्का झाड़ कर बीजों को निकाले और इसी प्रकार तिल प्राप्त होते हैं।

तिल से प्राप्त उपज

तिल से प्राप्त उपज की बात करें तो उचित तरीके से की गई खेती से तिल की सिंचित अवस्था में प्रति एकड़ 400 से 480 किलोग्राम और असिंचित या उचित सिंचाई ना होने पर प्रति एकड़ 200 से 250 किलोग्राम उपज प्राप्त हो जाती है।

तिल की कीमत

तेल की सामान्य कीमत 9000 रुपये है, जबकि जनवरी 2022 में तिल का बाजार मूल्य ₹9025 से ₹9700 तक था।

तिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2022 में क्या था?

तिल के न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात करें तो केंद्र सरकार की ओर से वित्तीय वर्ष 2020 से 2021 के लिए तिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य ₹6855 था और वित्तीय वर्ष 2021 से 2022 के लिए तिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य ₹7307 था। सरकार ने तिल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में ₹452 की वृद्धि की हैं।

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