Kisan News: कम सिंचाई और कम रासायनिक उर्वरकों का उपयोग कर करें मोटे अनाजों की खेती, मिलेगा लाभ

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आज के समय में देश के किसान भाई कृषि नीति में नई-नई तकनीकों को अपना रहे हैं। इसी के चलते देश आज खाद्यान्न सुरक्षा में आत्मनिर्भर है। ऐसे में आज हम आपके लिए मोटे अनाज को लेकर वैज्ञानिक तकनीक के बारे में बताने जा रहे हैं..

पुराने समय में भारत की कृषि उत्पादन प्रणाली में काफी विभिन्नता देखने को मिलती थी। तत्समय धान गेहूं, मक्का, ज्वार, बाजरा, सावाँ, कोदो, काकुन, मडुआ, चीना, एवं राई इत्यादि फसलों की खेती की जाती थी। लेकिन वर्तमान में स्थिति यह है कि देश की बदली कृषि नीति ने भारतीयों को धान-गेहूँ फसल पद्धति पर ही निर्भर बना दिया है। यहाँ यह भी कहना सही होगा कि उस समय देश खाद्यान्न सुरक्षा में आत्मनिर्भर नहीं था और हरित क्रान्ति के बाद देश की कृषि में आमूल चूल परिवर्तन देखने को मिला और हर व्यक्ति को भोजन मिलना सुनिश्चित हुआ।

आज के समय में मोटे अनाजों की खेती में कमी आ गई इसके चलते ही हम कम रासायनिक उर्वरकों एवं सिंचाई के मोटे अनाजों की खेती सफलतापूर्वक कर सकते हैं। हम जानते है कि आजकल मोटे अनाजों की खेती में बहुत ज्यादा कमी आ गई है इससे व्यक्ति के स्वास्थ्य पर प्रभाव अच्छा नहीं रहा है, अन्य फसलों की तुलना में मोटे अनाजों की ‌ उर्वरता अच्छी होती है।

खाद्यान्न सुरक्षा में हम आत्मनिर्भर हो गए, लेकिन मोटे अनाज की खेती (Cultivation of Coarse Cereals) का क्षेत्रफल धीरे-धीरे घटता चला गया। जो कि व्यक्ति के स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अच्छा नहीं रहा। इसके अलावा बाजारों में भी मोटे अनाजों का कम महत्व भी इसकी खेती करने वाले लोगों का मोहभंग का कारण बना। हरित क्रांति से पहले अपने देश में मोटे अनाजों की खेती बहुतायत होती थी। मोटा अनाज इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनके उत्पादन में ज्यादा लागत और मेहनत की जरूरत नहीं पड़ती और ये आनाज 50-100 सेमी की वर्षा वाले स्थानों एवं कम उपजाऊ जमीन पर भी इनकी खेती की जा सकती है।

अन्य फसलों के उत्पादन की तुलना में इससे कम रासायनिक उर्वरक एवं कम सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। बदलते हुए मौसम के परिवेश में खाद्यान्न सुरक्षा के लिए खतरा बढ़ रहा है क्योंकि वर्तमान में उगाई जा रही फसलें जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। इसीलिए जलवायु परिवर्तन के चलते खाद्य आपूर्ति की समस्या से निपटने में मोटे अनाज की खेती अच्छा विकल्प हो सकती है। धान-गेहूं की तुलना में ज्वार, बाजरा, मक्का, साव, कोदो, काकुन, मडुआ एवं सगी की फसलें जलवायु परिवर्तन के प्रति कम संवेदनशील होती है। सिंचित तथा असिंचित क्षेत्रों में चावल की पैदावार बारिश के कम-ज्यादा होने से अधिक प्रभावित होती है। इन स्थानों पर चावल की जगह मोटे अनाजों को अधिक उगाने से जलवायु परिवर्तन जैसी परिस्थिति में भी स्थायी खाद्य आपूर्ति बनाए रखने में मदद मिल सकती है। तथा स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से देखा जाए तो मोटे अनाजों में प्रोटीन, मिनरल्स, लिपिड्स फाइबर एवं विटामिन भरपूर मात्रा में पाए जाते है।

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