उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता
विशाल जनसंख्या के लिए संतुलित पोषक आहार उपलब्ध कराने एवं किसान की आय दोगुनी करने के साथ ही देश में प्रोटीन का प्रमुख स्रोत हैं दलहनी फसलें। इनके उत्पादन से प्रोटीन के अभाव को संतुलित कर देश के 90 प्रतिशत से अधिक शाकाहारी लोगों को संतुलित प्रोटीन की पूर्ति की जाती है। ऐसी स्थिति में दलहनी फसलों का उत्पादन बढ़ाना अति आवश्यक है। प्रोटीन की पूर्ति के लिए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 108 ग्राम दाल की आवश्यकता होती है, जबकि भारत में केवल 36 ग्राम दाल की मात्रा ही उपलब्ध हो पाती है। राजस्थान में यह मात्रा 42 ग्राम है। विश्व में अधिकांश शाकाहारी जनसंख्या के लिए प्रोटीन का एकमात्र स्रोत दलहन ही है। अनाज पर आधारित भोजन में दलहन सम्मिलित करने पर पोषणयुक्त संतुलित आहार उपलब्ध होता है।
उन्नत बीज प्राचीनकाल से ही उन्नत बीज कृषि का एक आवश्यक तत्व रहा है। उर्वर भूमि के बाद कृषि के लिए उन्नत बीज को ही महत्व दिया गया है। उन्नत बीज केवल शुद्ध किस्मों से प्राप्त होता है और स्वस्थ बीज से ही अच्छी फसल मिल सकती है, जो श्रेष्ठ उत्पादन दे सकती है। हरित क्रांति में भी उन्नत बीजों (किस्मों) को ही श्रेय दिया गया है। उन्नत किस्मों के बीज आधुनिक कृषि का प्रमुख आधार हैं। इन किस्मों के बीजों की प्रति हैक्टर पैदावार प्रचलित देसी किस्मों के बीजों से कई गुना अधिक होती है। सी.एसजे.-515 नामक चने की विकसित किस्म अधिक उत्पादकता के साथ-साथ प्रतिकूल अवस्थाओं के प्रति अधिक सहनशील एवं प्रतिरोधी है। अतः चने की भी आधुनिक तकनीकी से सस्य क्रियाएं करने से सी.एस.जे.-515 से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। |
बहुउपयोगी फसल
दलहन को धान्य के साथ मिलाकर भोजन में लिया जाये तो भोजन का जैविक मान बढ़ जाता है। औसत रूप से दालों में 20-31 प्रतिशत तक प्रोटीन पाई जाती है, जो कि अनाज वाली फसलों की तुलना में 2.5-3.5 गुना अधिक होती है। प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए अन्य दलहनों के साथ-साथ चने की उत्पादकता एवं उत्पादन बढ़ाने के लिए एकीकृत प्रयास करने की आवश्यकता है, जो भूमि की उर्वराशक्ति में वृद्धि करता है। दलहनी फसलों से पशुओ को पौष्टिक चारा एवं प्रोटीनयुक्त संतुलित आहार प्राप्त होता है। इनकी जड़ में उपस्थित राइजोबियम द्वारा जीवाणुओं की सहभागिता से भूमि में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण भी होता है।दलहनी फसलें सुपाच्यता में भी सभी खाद्यान्नों में सर्वोपरि हैं। मानव शरीर में पोषक तत्व तथा ऊर्जा की पूर्ति दालों से होती है। दुनिया में सबसे ज्यादा व्यंजन, दलहनी खाद्यान्नों मुख्य रूप से चना, मूंग, मसूर एवं मोठ से बनाये जाते हैं। नमकीन एवं मिठाइयां भी चने एवं मूंग से बनाई जाती हैं। इसके साथ-साथ रोस्टेड दलहनों का उपयोग भी विश्व स्तर पर बढ़ रहा है। चना एक पौष्टिक दलहन के रूप में विख्यात एवं बहुउपयोगी है। इसकी दाल से मिठाइयां, बेसन (कढ़ी) के बनने के साथ ही यह औषधीय गुणों के कारण ताकत आरै ऊर्जा शुक्राणुओं का बढ़ना, कब्ज का दुश्मन, जनन क्षमता में वृद्धि मूत्र संबंधी समस्या, मधुमेह (डायबिटीज), पथरी, मूत्राशय अथवा गुर्दा रोग, जुकाम, बहुमूत्रता, बवासीर, पित्ती निकलना, पीलिया, सिर का दर्द, कफ विकृति, नासिका शोथ, एनीमिया से बचाता है। चने की खेती करने से पशुओं को उच्च गुणवत्ता व प्रोटीनयुक्त चारे की उपलब्धता हो जाती है।

भारत में चने की खेती
भारत में इसकी खेती व्यावसायिक स्तर पर विभिन्न राज्यों-मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में होती है। अन्य उत्पादन करने वाले प्रांतों में बिहार, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, ओडिशा, तमिलनाडु एवं पश्चिम बंगाल सम्मिलित हैं। राजस्थान में चना मुख्य रूप से बारानी क्षेत्रों में बोया जाता है। राजस्थान में चने की खेती खरीफ में होने वाली वर्षा से प्रभावित होती है। सितंबर-अक्टूबर में अच्छी वर्षा होती है तो चने का क्षेत्रफल काफी बढ़ जाता है। अगस्त में वर्षा समाप्त होने पर चने का क्षेत्रफल आधे से भी कम रह जाता है।

सी.एस.जे.-515 (अमन) का विकास 2016 में आर.ए.आर.आई., दुर्गापुरा में बारानी खेती के लिए हुआ। इसकी उपज आरएसजी-931 (1800-2000 कि.ग्रा./हैक्टर), आरएसजी-888 (1800-2200 कि.ग्रा./हैक्टर) और जीएनजी-469 की तुलना में लगातार उच्च (2000-2500 कि.ग्रा./हैक्टर) प्राप्त हुई है। इसकी औसतन परिपक्वता 125-135 दिन और बीज का आकार (16.0 ग्राम) मोटा है। इसमें विल्ट, रूट रॉट, कॉलर रॉट, एस्कोच्यटा ब्लाइट, बी.जी.एम. और स्टंट के साथ ही फलीछेदक की प्रतिरोधी क्षमता पाई गई। इसमें प्रोटीन (20.8 प्रतिशत), चीनी (6.8 प्रतिशत) और जल अवशोषण क्षमता (0.78 प्रतिशत) पायी जाती है। अच्छी गुणवत्ता के साथ वांछनीय ऊंचाई होने के कारण तने के ऊपरी भाग पर फली लगती है, जिसके कारण यह यांत्रिक फसल कटाई के लिए भी उपयुक्त पाई गई।
बुआई का समय
असिंचित दशा में चने की बुआई अक्टूबर के मध्य समय तक कर देनी चाहिए। राजस्थान में चने की सामान्य बुआई का समय 15 अक्टूबर से 15 नवंबर एवं पछेती बुआई 15 नवंबर से दिसंबर प्रथम सप्ताह तक कर सकते हैं।
बीज की मात्रा एवं बुआई
चने की बुआई सिंचित क्षेत्र में 5-7 सें.मी., जबकि असिंचित क्षेत्र में 7-10 सें.मी. गहराई पर 70-80 कि.ग्रा./हैक्टर की दर से करें। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सें.मी., जबकि पौधे से पौधे की दूरी 10-15 सें.मी. रखनी चाहिए।
उर्वरक प्रबंधन
मृदा स्वास्थ्य कार्ड अथवा मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरक प्रयोग करें। सिफारिश के अभाव में असिंचित क्षेत्रों में 10 कि.ग्रा. नाइट्रोजन और 25 कि.ग्रा. फॉस्फोरस तथा सिंचित अथवा अच्छी नमी वाले स्थानों के लिए बुआई के समय 20 कि.ग्रा. नाइट्रोजन एवं 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टर बीज की गहराई से लगभग 5 सें.मी. गहरी बुआई कर दें। गंधक एवं जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में क्रमशः 125 कि.ग्रा. गंधक एवं 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टर बुआई के समय दें।
सारणी 1.
क्षेत्र बुआई का समय | क्षेत्र बुआई का समय | |
सामान्य पछेती | सामान्य पछेती | |
उत्तर भारत | 15 अक्टूबर से 15 नवंबर | 15 नवंबर से 15 दिसंबर |
मध्य भारत | 10 अक्टूबर से 30 अक्टूबर | 1 नवंबर से 30 नवंबर |
सारणी 2. चने की विभिन्न व्यावसायिक किस्मों की उपज
स्थान | वर्ष | आरएसजी-515 | व्यावसायिक किस्में | |||
आरएसजी -931 | आरएसजी -931 | आरएसजी -931 | सीएसजेडी -884 | |||
दुर्गापुरा | 2009&10 | 2399 | 1778 | 1819 | 2014 | 2076 |
2010-11 | 2139 | 1805 | 2155 | 2055 | 2083 | |
2011-12 | 2628 | 2430 | 2590 | 2458 | 2847 | |
2012-13 | 1465 | 1271 | 1826 | 1646 | 1694 | |
बनस्थली | 2009-10 | 1549 | 1549 | 1389 | 1431 | 1507 |
2010-11 | 1528 | 1701 | 1146 | 1562 | 1319 | |
2011-12 | 1510 | 1510 1358 | 1225 | 1383 | 1383 | |
2012-13 | 1806 | 1250 | 1125 | 1125 | 1310 | |
डीग्गी | 2010-11 | 2184 | 2162 | 2091 | 2082 | 2110 |
2011-12 | 1764 | 2604 | 2653 | 2507 | 2604 | |
2012-13 | 1550 | 1339 | 1283 | 1347 | 127 | |
कुम्मेहर | 2009-10 | 1240 | 833 | 1018 | 1064 | 1111 |
2010-11 | 2673 | 3194 | 2152 | 2430 | 1909 | |
2011-12 | 3111 | 1500 | 1600 | 1618 | 1784 | |
2012-13 | 2245 | 2352 | 2384 | 2338 | 2370 | |
औसतन उपज प्रति हैक्टर | 1986 | 1808 | 1762 | 1793 | 1825 |
निराई-गुड़ाई
प्रथम निराई-गुड़ाई, बुआई के 25 से 35 दिनों बाद तथा आवश्यकतानुसार, दूसरी निराई-गुड़ाई 20 दिनों बाद करें। जहां निराई-गुड़ाई संभव नहीं हो, वहां पर सिंचित फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमिथेलीन 30 ई.सी. अथवा पेन्डीमिथेलीन 38.7 सीएस 750 ग्राम सक्रिय तत्व का शाकनाशी की बुआई के बाद परंतु बीज उगने के पूर्व 600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
सिंचाई
सामान्यतः चने की खेती बारानी क्षेत्रों में की जाती है, परंतु जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहां मृदा व वर्षा का ध्यान में रखते हुए प्रथम सिंचाई बुआई के 40-45 दिनों एवं द्वितीय सिंचाई, 75-80 दिनों पर अवश्य करें। इस समय सिंचाई करने पर फलियां ज्यादा बनती हैं, जिससे अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है। यदि फलियां लगते समय सिंचाई की समुचित व्यवस्था न हो तो 60-65 दिनों पर केवल एक सिंचाई करें। चने में हल्की सिंचाई करें और ध्यान रखें कि खेत में कहीं भी पानी न भरे अन्यथा जड़ ग्रंथियों की क्रियाशीलता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसके साथ ही फसल के पीले पड़ने व मरने की आशंका बनी रहती है।
फव्वारा विधि
चने की सिंचाई इस विधि से करने से लगभग 25-30 प्रतिशत पानी की बचत संभव है। पहली सिंचाई, बुआई के लगभग 40 दिनों बाद, दूसरी सिंचाई-बुआई के 80 दिनों बाद (फली बनते समय) तथा तीसरी सिंचाई, बुआई के 110 दिनों पर करें। इसके लिए फव्वारों को लगभग 4 घंटे चलायें। उपज उन्नत विधियों का उपयोग करने पर चने की सिंचित क्षेत्रों में औसत उपज 25-28 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त की जा सकती है।
उपज
उन्नत विधियों का उपयोग करने पर चने की सिंचित क्षेत्रों में औसत उपज 25-28 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त की जा सकती है।
स्त्रोत : खेती पत्रिका, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद(आईसीएआर)

