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अनार की खेती

भारत में अनार की खेती मुखय रूप से महाराष्ट्र में की जाती है। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक, गुजरात में छोटे स्तर में इसके बगीचे देखे जा सकते हैं। इसका रस स्वादिष्ट तथा औषधीय गुणों से भरपूर होता है। भारत में अनार का क्षेत्रफल 113.2 हजार हेक्टेयर, उत्पादन 745 हजार मैट्रिक टन एवं उत्पादकता 6.60 मैट्रिक टन प्रति हेक्टेयर है। (2012-13)

अनार की खेती के लिए जलवायु

अनार उपोष्ण जलवायु का पौधा है। यह अर्द्ध शुष्क जलवायु में अच्छी तरह उगाया जा सकता है। फलों के विकास एवं पकने के समय गर्म एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है। लम्बे समय तक उच्च तापमान रहने से फलों में मिठास बढ़ती है। आर्द्र जलवायु से फलों की गुणवत्ता प्रभावित होती है।एवं फफूॅंद जनक रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है। इसकी खेती समुद्रतल से 500 मीटर सें अधिक ऊॅंचें स्थानों पर की जा सकती है।

अनार की खेती के लिए मृदा

अनार विभिन्न प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है। परन्तु अच्छे जल विकास वाली रेतीेली दोमट मिट्‌टी सर्वोतम होती है। फलों की गुणवत्ता एवं रंग भारी मृदाओं की अपेक्षा हल्की मृदाओं में अच्छा होता है। अनार मृदा लवणीयता 9.00 ई.सी./मि.ली. एवं क्षारीयता 6.78 ई.एस.पी. तक सहन कर सकता है।

अनार की खेती के लिए किस्में

  1. गणेश-यह किस्म डॉं. जी.एस.चीमा द्वारा गणेश रिवण्ड फल अनुसंधान केन्द्र, पूना से 1936 में आलंदी किस्म के वरण से विकसित की। इस किस्म के फल मध्यम आकार के बीज कोमल तथा गुलाबी रंग के होते हैं। यह महाराष्ट्र की मशहूर किस्म है।
  2. ज्योति- यह किस्म बेसिन एवं ढ़ोलका के संकरण की संतति से चयन के द्वारा विकसित की गई है। फल मध्यम से बड़े आकार के चिकनी सतह एवं पीलापन लिए हुए लाल रंग के होते हैं। एरिल गुलाबी रंग की बीज मुलायम बहुत मीठे होते हैं। प्रति पौधा 8-10 कि.ग्रा. उपज प्राप्त की जा सकती है।
  3. मृदुला- यह किस्म गणेश एवं गुल-ए-शाह किस्म के संकरण की एफ-1 संतति से चयन के द्वारा महात्मा फुले कृषि विद्यापीठ, राहुरी, महाराष्ट्र से विकसित की गई है। फल मध्यम आकार के चिकनी सतह वाले गहरे लाल रंग के होते हैं। एरिल गहरे लाल रंग की बीज मुलायम, रसदार एवं मीठे होते हैं। इस किस्म के फलों का औसत वजन 250-300 ग्राम होता है।
  4. भगवा-इस किस्म के फल बड़े आकार के भगवा रंग के चिकने चमकदार होते हैं। एरिल आकर्षक लाल रंग की एवं बीज मुलायम होते हैं। उच्च प्रबंधन करने पर प्रति पौधा 30.38 कि.ग्रा. उपज प्राप्त की जा सकती है।
  5. अरक्ता-यह किस्म महात्मा फुले कृषि विद्यापीठ, राहुरी, महाराष्ट्र से विकसित की गई है।यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है। फल बड़े आकार के, मीठे, मुलायम बीजों वाले होते हैं। एरिल लाल रंग की एवं छिल्का आकर्षक लाल रंग का होता है। उच्च प्रबंधन करने पर प्रति पौधा 25-30 कि.ग्रा. उपज प्राप्त की जा सकती है।

अनार की खेती के लिए प्रवर्धन

  1. कलम द्वारा- एक वर्ष पुरानी शाखाओं से 20-30 से.मी.लम्बी कलमें काटकर पौध शाला में लगा दी जाती हैं। इन्डोल ब्यूटारिक अम्ल (आई.बी.ए.) 3000 पी.पी.एम. से कलमों को उपचारित करने से जड़ें शीघ्र एवं अधिक संख्या में निकलती हैं।
  2. गूटी द्वारा-अनार का व्यावसायिक प्रर्वधन गूटीद्वारा किया जाता है। इस विधि में जुलाई-अगस्त में एक वर्ष पुरानी पेन्सिल समान मोटाई वाली स्वस्थ, ओजस्वी, परिपक्व, 45-60 से.मी. लम्बाई की शाखा का चयन करें । चुनी गई शाखा से कलिका के नीचे 3 से.मी. चौड़ी गोलाई में छाल पूर्णरूप से अलग कर दें। छाल निकाली गई शाखा के ऊपरी भाग में आई. बी.ए.10,000 पी.पी.एम. का लेप लगाकर नमी युक्त स्फेगनम मास चारों और लगाकर पॉलीथीन शीट से ढ़ॅंककर सुतली से बाँध दें। जब पालीथीन से जड़े दिखाई देने लगें उस समय शाखा को स्केटियर से काटकर क्यारी या गमलो में लगा दें।

अनार की खेती के लिए रोपण

पौध रोपण की आपसी दूरी मृदा का प्रकार एवं जलवायु पर निर्भर करती है। सामान्यतः 4-5 मीटर की दूरी पर अनार का रोपण किया जाता है।सघन रोपण पद्धति में 5 ग2 मीटर (1,000 पौधें/हें.), 5 ग 3 मीटर (666 पौधें/हें.), 4.5 ग 3 (740 पौधें/हें.) की आपसी अन्तराल पर रोपण किया जा सकता है। पौध रोपण के एक माह पूर्व 60 ग 60 ग 60 सेमी. (लम्बाई*चौड़ाई*गहराई.) आकार के गड्‌ढे खोद कर 15 दिनों के लिए खुला छोड़ दें। तत्पश्चात गड्‌ढे की ऊपरी मिट्‌टी में 20 किग्रा.पकी हुई गोबर की खाद 1 किग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट .50 ग्राम क्लोरो पायरीफास चूर्ण मिट्‌टी में मिलाकर गड्‌डों को सतह से 15 सेमी. ऊंचाई तक भर दें।गड्‌ढे भरने के बाद सिंचाई करें ताकि मिट्‌टी अच्छी तरह से जम जाए तदुपरान्त पौधों का रोपण करें एवं रोपण पश्चात तुरन्त सिचाई करें।

अनार की खेती के लिए खाद एवं उर्वरक

  1. पत्ते गिरने के एक सप्ताह बाद या 80-85 प्रतिशत पत्तियों के गिरने के बाद पौधों की आयु खाद एवं उर्वरक को पौधों की आयु के अनुसार कार्बनिक खाद एवं नाइट्रोजन, फॅास्फोरस और पोटाश का प्रयोग करें। पकी हुई गोबर की खाद नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटाश की दर को मृदा परीक्षण तथा पत्ती विश्लेषण के आधार पर उपयोग करें। खाद एवं उर्वरकों का उपयोग केनोपी के नीचे चारों ओर 8-10 सेमी.गहरी खाई बनाकर देना चाहिए।
  2. नाइट्रोजन एवं पोटाश युक्त उर्वरकों को तीन हिस्सों में बांट कर पहली खुराक सिंचाई के समय या बहार प्रबंधन के बाद और दूसरी खुराक पहली खुराक के 3-4 सप्ताह बाद दें, फॉस्फोरस की पूरी खाद को पहली सिंचाई के समय दें।
  3. नत्रजन की आपूर्ति के लिए काली मिट्‌टी में यूरिया एवं लाल मिट्‌टी में कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट का प्रयोग करें, फॉस्फोरस की आपूर्ति के लिए सिंगल सुपर फास्फेट एवं पोटाश की आपूर्ति के लिए म्यूरेट ऑफ पोटाश का प्रयोग करें।
  4. जिंक,आयरन,मैगनीज तथा बोरान की 25 ग्राम की मात्रा प्रति पौधे में पकी गोबर की खाद के साथ मिलाकर डालें, सूक्ष्म पोषक तत्व की मात्रा का निर्धारण मृदा तथा पत्ती परीक्षण द्वारा करें।
  5. जब पौधों पर पुष्प आना शुरू हो जाएं तो उसमें नत्रजनःफॉस्फोरसःपोटाश:12:61:00 को 8 किलो/हेक्टेयर की दर से एक दिन के अंराल पर एक महीने तक दें।
  6. जब पौधों में फल लगने शुरू हो जाएं तो नत्रजनःफॉस्फोरसःपोटाश:19:19:19 को ड्रिप की सहायता से 8 कि.ग्रा./हैक्टेयर की दर से एक दिन के अंतराल पर एक महीने तक दें।
  7. जब पौधों पर शत प्रतिशत फल आ जाएं तो नत्रजनःफॉस्फोरसःपोटाश:00:52:34 या मोनोपोटेशियम फास्फेट 2.5 किलो/हेक्टेयर की मात्रा को एक दिन के अन्तराल पर एक महीने तक दें।
  8. फल की तुड़ाई के एक महीने पहले कैल्शियम नाइट्रेट की 12.5 किलो ग्राम/हेक्टेयर की मात्रा ड्रिप की सहायता से 15 दिनों के अंतराल पर दो बार दें।

अनार की खेती के लिए विधी सिंचाई

अनार के पौधे सूखा सहनशील होते हैं। परन्तु अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई आवश्यक है। मृग बहार की फसल लेने के लिए सिंचाई मई के मध्य से शुरु करके मानसून आने तक नियमित रूप से करना चाहिए। वर्षा ऋतु के बाद फलों के अच्छे विकास हेतु नियमित सिंचाई 10-12 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए। ड्रिप सिंचाई अनार के लिए उपयोगी साबित हुई है।इसमें 43 प्रतिशत पानी की बचत एवं 30-35 प्रतिशत उपज में वृद्धि पाई गई है।ड्रिप द्वारा सिंचाई विभिन्न मौसम में उनकी आवश्यकता के अनुसार करें।

अनार की खेती के लिए सधाई

अनार मे सधाई का बहुत महत्व है। अनार की दो प्रकार से सधाई की जा सकती है।

  1. एक तना पद्धति – इस पद्धति में एक तने को छोडकर बाकी सभी बाहरी टहनियों को काट दिया जाता है। इस पद्धति में जमीन की सतह से अधिक सकर निकलते हैं।जिससे पौधा झाड़ीनुमा हो जाता है। इस विधि में तना छेदक का अधिक प्रकोप होता है। यह पद्धति व्यावसायिक उत्पादन के लिए उपयुक्त नही हैं।
  2. बहु तना पद्धति – इस पद्धति में अनार को इस प्रकार साधा जाता है कि इसमे तीन से चार तने छूटे हों,बाकी टहनियों को काट दिया जाता है। इस तरह साधे हुए तनें में प्रकाश अच्छी तरह से पहुॅंचता है। जिससे फूल व फल अच्छी तरह आते हैं।

अनार की खेती के लिए कॉट-छॉट

  1. ऐसे बगीचे जहाँ पर ऑइली स्पाट का प्रकोप ज्यादा दिखाई दे रहा हो वहाँ पर फल की तुड़ाई के तुरन्त बाद गहरी छँटाई करनी चाहिए तथा ऑइली स्पाट संक्रमित सभी शाखों को काट देना चाहिए।
  2. संक्रमित भाग के 2 इंच नीचे तक छँटाई करें तथा तनों पर बने सभी कैंकर को गहराई से छिल कर निकाल देना चाहिए। छँटाई के बाद 10 प्रतिशत बोर्डो पेस्ट को कटे हुऐ भाग पर लगायें। बारिश के समय में छँटाई के बाद तेल युक्त कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (500 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड + 1 लीटर अलसी का तेल) का उपयोग करें।
  3. अतिसंक्रमित पौधों को जड़ से उखाड़ कर जला दें और उनकी जगह नये स्वस्थ पौधों का रोपण करें या संक्रमित पौधों को जमीन से 2-3 इंच छोड़कर काट दें तथा उसके उपरान्त आए फुटानों को प्रबन्धित करें।
  4. रोगमुक्त बगीचे में सिथिल अवस्था के बाद जरूरत के अनुसार छँटाई करें।
  5. छँटाई के तुरन्त बाद बोर्डो मिश्रण (1प्रतिशत) का छिड़काव करें।
  6. रेस्ट पीरियड के बाद पौधों से पत्तों को गिराने के लिए इथरैल (39 प्रतिशत एस.सी.) 2-2.5मि.ली./लीटर की दर से मृदा में नमी के आधार पर उपयोग करें।
  7. गिरे हुए पत्तों को इकठ्‌ठा करके जला दें। ब्लीचिंग पावडर के घोल (25 कि.ग्रा./1000 लीटर/हेक्टेयर) से पौधे के नीचे की मृदा को तर कर दें।

बहार नियंत्रण

अनार में वर्ष मे तीन बार जून-जुलाई (मृग बहार), सितम्बर-अक्टूबर (हस्त बहार) एवं जनवरी-फरवरी (अम्बे बहार) में फूल आते हैं। व्यवसायिक रूप से केवल एक बार की फसल ली जाती है। और इसका निर्धारण पानी की उपलब्धता एवं बाजार की मांग के अनुसार किया जाता है। जिन क्षेत्रों मे सिंचाई की सुविधा नही होती है,वहाँ मृग बहार से फल लिये जाते हैं। तथा जिन क्षेत्रों में सिचाई की सुविधा होती है वहॉ फल अम्बें बहार से लिए जाते हैं। बहार नियंत्रण के लिए जिस बहार से फल लेने हो उसके फूल आने से दो माह पूर्व सिचाई बन्द कर देनी चाहिये।

तुड़ाई

अनार नान-क्लामेट्रिक फल है जब फल पूर्ण रूप से पक जाये तभी पौंधे से तोड़ना चाहिए। पौधों में फल सेट होने के बाद 120-130 दिन बाद तुड़ाई के तैयार हो जाते हैं। पके फल पीलापन लिए लाल हो जाते हैं।

उपज

पौधे रोपण के 2-3 वर्ष पश्चात फलना प्रारम्भ कर देते हैं। लेकिन व्यावसायिक रूप से उत्पादन रोपण के 4-5 वर्षों बाद ही लेना चाहिए। अच्छी तरह से विकसित पौधा 60-80 फल प्रति वर्ष 25-30 वर्षो तक देता है।

श्रेणीकरण

अनार के फलों के वजन,आकार एवं बाहरी रंग के आधार पर निम्नलिखित श्रेणियों मे रखा जाता है।

  1. सुपर साईज-इस श्रेणी में चमकदार लाल रंग के बिना धब्बे वाले फल जिनका भार 750 ग्राम से अधिक हो आते हैं।
  2. किंग साईज-इस श्रेणी में आर्कषक लाल रंग के बिना धब्बे वाले फल जिनका भार 500 से 750 ग्राम हो आते हैं।
  3. क्वीन साईज-इस श्रेणी में चमकदार लाल रंग के बिना धब्बे वाले फल जिनका भार 400-500 ग्राम हो आते हैं।
  4. प्रिंन्स साईज- पूर्ण पके हुए लाल रंग के 300 से 400 ग्राम के फल इस श्रेणी में आते हैं।
  5. शेष बचे हुए फल दो श्रेणीयों 12-ए. एवं 12-बी. के अंर्तगत आते हैं। 12-बी. के अंर्तगत 250-300 ग्राम भार वाले फल जिनमें कुछ धब्बे हो जाते हैं।

अनार की खेती के लिए भंड़ारण

शीत गृह में 5 डिग्री सेल्सियस तापमान पर 2 माह तक भण्डारित किया जा सकता है।

अनार की खेती के लिए पौध संरक्षण

एकीकृत कीट प्रबंधन

१. अनार की तितली-इस कीट का वैज्ञानिक नाम ड्‌यूड़ोरिक्स आईसोक्रेट्‌स है यह अनार का सबसे गंभीर कीट है। इसके द्वारा 20-80 प्रतिशत हानि की जाती है। प्रौढ तितली फूलों पर तथा छोटे फलों पर अण्डे देती है। जिनसे इल्ली निकलकर फलों के अन्दर प्रवेश कर जाती है तथा बीजों को खाती है। प्रकोपित फल सड़ जाते हैं और असमय झड़ जाते हैं।


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